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डिमांड ड्राफ्ट जिसे DD के रूप में भी जाना जाता है, बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा ग्राहकों को पैसे ट्रांसफर करने के लिए दी जाने वाली एक सुविधा है। डीडी एक प्री–पेड नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट है। इसे किसी भी बैंक से बनवाया जा सकता है। डीडी जिस व्यक्ति के नाम पर बनाया जाता है उसी के अकाउंट में ट्रांसफर होता है। डिमांड ड्राफ्ट की एक विशेषता यह है कि इसे बनवाने वाले का उस बैंक में अकाउंट होना ज़रूरी नहीं है।
वह पक्ष या वह व्यक्ति जो डिमांड ड्राफ्ट बनाता है उसे ड्रॉअर (भुगतानकर्ता) के रूप में जाना जाता है और वह व्यक्ति, जो भुगतान प्राप्त करता है उसे आदाता या प्राप्तकर्ता कहा जाता है।
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अगर डिमांड ड्राफ्ट अकाउंट पेयी के रूप में क्रॉस किया गया है, फिर इसे बैंक शाखा के काउंटर पर जमा नहीं किया जा सकता है, फिर यह केवल उस व्यक्ति के बैंक अकाउंट में क्रॉस डिमांड ड्राफ्ट जमा करके किया जा सकता है, जिसके पक्ष में डिमांड ड्राफ्ट बनाया गया है। जबकि अगर नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक क्रॉस डिमांड ड्राफ्ट नहीं है तो बैंक अकाउंट में जमा किए बिना भी इस इनकैश किया जा सकता है। इस तरह के इंस्ट्रूमेंट को बैंक शाखा के काउंटर पर रखा जा सकता है। डिमांड ड्राफ्ट को क्रॉस करने के पीछे मुख्य कारण यह सुनिश्चित करना है कि भुगतान केवल अकाउंट के माध्यम से इनकैश हो जाए अर्थात भुगतान केवल उस ग्राहक के बैंक अकाउंट में किया जाए, जिसके नाम पर डिमांड ड्राफ्ट बनाया गया है। यह किसी भी गलत व्यक्ति को भुगतान करने से रोकता है।
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डिमांड ड्राफ्ट बनाने के लिए कोई शुल्क तय नहीं है और यह शुल्क एक बैंक से दूसरे बैंक में भिन्न होता है। डिमांड ड्राफ्ट शुल्क भी उसके मूल्य पर निर्भर करता है। अगर डिमांड ड्राफ्ट का मूल्य कम है, तो बैंक एक तय दर से शुल्क ले सकता है। प्रिविलेज बैंकिंग ग्राहकों के लिए डिमांड ड्राफ्ट बनाने के लिए शुल्क कम हो सकता है। अगर कोई व्यक्ति जो डीडी को रद्द करना चाहता है तो वह बैंकर को अनुरोध पेश कर सकता है। डिमांड ड्राफ्ट कैंसिल करने के लिए 100 रु. से 300 रु. प्रति डिमांड ड्राफ्ट शुल्क लगता है।
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चेक और डिमांड ड्राफ्ट के बीच मूल अंतर यह है कि एक बैंक डिमांड ड्राफ्ट जारी करता है जबकि चेक एक व्यक्ति द्वारा जारी किया जाता है। दूसरा बड़ा अंतर यह है कि एक चेक बैंक के ग्राहक द्वारा बनाया जाता है जबकि डिमांड ड्राफ्ट बैंक द्वारा तैयार किया जाता है। एक ड्राअर डिमांड ड्राफ्ट के भुगतान को रोक नहीं सकता है जबकि यह चेक के साथ हो सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि डिमांड ड्राफ्ट एक प्रीपेड इंस्ट्रूमेंट है, आप ड्राफ्ट बनवाने से पहले ही उसका भुगतान कर देते हैं, इसलिए इसका भुगतान रोका नहीं जा सकता है और ये भुगतान लेने वाले के लिए सुरक्षित है। वहीं अगर अकाउंट में पर्याप्त पैसे नहीं है तो चेक बाउंस हो सकता है।
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यह बहुत बार देखा जाता है कि लोग अपने चेक को अपने बैंक अकाउंट में जमा करने में देरी करते हैं। यह देरी विभिन्न कारणों से हो सकती है, लेकिन अब इस तरह के लोगों को पता होना चाहिए कि भारतीय रिजर्व बैंक एक नई पॉलिसी लेकर आया है और इससे चेक और डिमांड ड्राफ्ट की वैद्यता कम हो गई है। 1 अप्रैल 2012 से आरबीआई (RBI) के दिशा-निर्देशों के अनुसार, डिमांड ड्राफ्ट, चेक, बैंकर चेक, पे ऑर्डर आदि जैसे नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट जारी करने की तारीख से 3 महीने के लिए मान्य होंगे। पहले ये इंस्ट्रूमेंट जारी करने की तारीख से 6 महीने के लिए वैध थे।
इस बदलाव के पीछे कारण यह था कि ऐसे लोग थे जो छह महीने की वैधता का अनुचित लाभ उठा रहे थे और इस समय सीमा में वे इन इंस्ट्रूमेंट को नगदी की तरह बाज़ार में इस्तेमाल कर रहे थे। भारतीय रिजर्व बैंक ने यह बदलाव जनता के साथ–साथ बैंकिंग पॉलिसी के हित में भी किया। आरबीआई (RBI) ने आगे सूचित किया कि इस अवधि को कम करना आवश्यक था जिसके भीतर ऐसे इंस्ट्रूमेंट जारी करने की तारीख से 6 महीने से 3 महीने तक के भुगतान के लिए ड्राफ्ट, चेक, बैंकर चेक, पे ऑर्डर आदि प्रस्तुत किए गए थे। आरबीआई ने बैंकों को निर्देश दिया है कि यदि कोई इंस्ट्रूमेंट जारी करने की तारीख से तीन महीने की अवधि के बाद पेश किया जाता है तो कोई भुगतान न करें।
अगर डिमांड ड्राफ्ट की वैधता समाप्त हो गई है, तो डीडी के खरीदार को संबंधित शाखा में जाना चाहिए, जिसने ड्राफ्ट जारी किया है और डिमांड ड्राफ्ट के रि-वेरिफिकेशन के लिए एक आवेदन पेश करना है। जिस व्यक्ति का नाम ड्राफ्ट में है, वह बैंक को दोबारा वैलिड करने की प्रक्रिया के लिए संपर्क नहीं कर सकता है।
इन नई पॉलिसी और शर्तों के साथ भारतीय रिज़र्व बैंक को इन इंस्ट्रूमेंट के दुरुपयोग को कम करने की उम्मीद है।